वसंत ऋतु राज का स्वागत है! शताब्दियों से भारत के रसिक कवि-मनिषियों के हृदय, ऋतु-चक्र के प्राण सदृश "वसंत" का, भाव-भीने गीतों व पदों से, अभिनंदन करते रहे हैं। | ||
प्रकृति षोडशी, कल्याणी व सुमधुर रूप लिए अठखेलियाँ दिखलाती, कहीं कलिका बन कर मुस्कुराती है तो कहीं आम्र मंजिरी बनी खिल-खिल कर हँसती है और कहीं रसाल ताल तड़ागों में कमलिनी बनी वसंती छटा बिखेरती काले भ्रमर के संग केलि करती जान पड़ती है। वसंत की अनुभूति मानव मन को शृंगार रस में डुबो के ओतप्रोत कर देती है। भक्त शिरोमणि बाबा सूरदास गाते हैं - बसंत ऋतु के छा जाने पर पृथ्वी में नए प्राणो का संचार होता है। ब्रृज भूमि में गोपी दल, अपने सखा श्री कृष्ण से मिलने उतावला-सा निकल पड़ता है। श्री रसेश्वरी राधा रानी अपने मोहन से ऐसी मधुरिम ऋतु में कब तक नाराज़ रह सकती है? प्रभु की लीला वेनु की तान बनी, कदंब के पीले, गोल-गोल फूलों से पराग उड़ती हुई, गऊधन को पुचकारती हुई, ब्रज भूमि को पावन करती हुई, स्वर-गंगा लहरी समान, जन-जन को पुण्यातिरेक का आनंदानुभव करवाने लगती है। ऐसे अवसर पर, वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हो उठता है - गोपी के ठिठोली भरे वचन सुन, राधाजी, अपने प्राणेश्वर, श्री कृष्ण की और अपने कुमकुम रचित चरण कमल लिए, स्वर्ण-नुपूरों को छनकाती हुईं चल पड़ती हैं! वसंत ऋतु पूर्ण काम कला की जीवंत आकृति धरे, चंपक के फूल-सी आभा बिखेरती राधा जी के गौर व कोमल अंगों से सुगंधित हो कर, वृंदावन के निकुंजों में रस प्रवाहित करने लगती है। लाल व नीले कमल के खिले हुये पुष्पों पर काले-काले भँवरे सप्त-सुरों से गुंजार के साथ आनंद व उल्लास की प्रेम-वर्षा करते हुए रसिक जनों के उमंग को चरम सीमा पर ले जाने में सफल होने लगते हैं। "आई ऋतु चहुँ-दिसि, फूले द्रुम-कानन, कोकिला समूह मिलि गावत वसंत ही, गोपियाँ अब अपने प्राण-वल्लभ, प्रिय सखा गोपाल के संग, फागुन ऋतु की मस्ती में डूबी हुई, उतावले पग भरती हुई, ब्रृज की धूलि को पवन करती हुई, सघन कुंजों में विहार करती हैं। पर हे देव! श्री कृष्ण, आखिर हैं कहाँ? कदंब तले, यमुना किनारे, ब्रृज की कुंज गलियों में श्याम मिलेंगे या कि फिर वे नंद बाबा के आँगन में, माँ यशोदा जी के पवित्र आँचल से, अपना मुख-मंडल पुछवा रहे होंगे? कौन जाने, ब्रृज के प्राण, गोपाल इस समय कहाँ छिपे हैं? "ललन संग खेलन फाग चली! आवो वसंत, बधावौ ब्रृज की नार सखी सिंह पौर, ठाढे मुरार! ऋतु राज वसंत के आगमन से, प्रकृति अपने धर्म व कर्म का निर्वाह करती है। हर वर्ष की तरह, यह क्रम अपने पूर्व निर्धारित समय पर असंख्य फूलों के साथ, नई कोपलों और कोमल सुगंधित पवन के साथ मानव हृदय को सुखानुभूति करवाने लगता है। पेड़ की नर्म, हरी-हरी पत्तियाँ, रस भरे पके फलों की प्रतीक्षा में सक्रिय हैं। दिवस कोमल धूप से रंजित गुलाबी आभा बिखेर रहा है तो रात्रि, स्वच्छ, शीतल चाँदनी के आँचल में नदी, सरोवर पर चमक उठती है। प्रेमी युगुलों के हृदय पर अब कामदेव, अनंग का एकचक्र अधिपत्य स्थापित हो उठा है। वसंत ऋतु से आँदोलित रस प्रवाह, वसंत पंचमी का यह भीना-भीना, मादक, मधुर उत्सव, आप सभी के मानस को हर्षोल्लास से पुरित करता हुआ हर वर्ष की तरह सफल रहे यही भारतीय मनीषा का अमर संदेश है - "आयौ ऋतु-राज साज, पंचमी वसंत आज, बसंत ऋतु है, फाग खेलते नटनागर, मनोहर शरीर धारी, श्याम सुंदर मुस्कुरा रहे हैं और प्रेम से बावरी बनी गोपियाँ, उनके अंगों पर बार-बार चंदन मिश्रित गुलाल का छिड़काव कर रही हैं! राधा जी अपने श्याम का मुख तक कर विभोर है। उनका सुहावना मुख मंडल आज गुलाल से रंगे गालों के साथ पूर्ण कमल के विकसित पुष्प-सा सज रहा है। वृंदावन की पुण्य भूमि आज शृंगार-रस के सागर से तृप्त हो रही है। प्रकृति नूतन रूप संजोये, प्रसन्न है! सब कुछ नया लग रहा है कालिंदी के किनारे नवीन सृष्टि की रचना, सुलभ हुई है |
Monday, January 19, 2009
वसंतोत्सव— लावण्या शाह
मन बहलाव वसंत के — पूर्णिमा वर्मन
वसंत की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन मन का स्पर्श करती है, समस्त मानवता शीत की ठिठुरी चादर छोड़ कर हर्षोल्लास मनाने लगती है।
वैदिक काल से वर्तमान काल तक प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसंत के मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन प्राप्त होता है। इनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में वसंत में 'वन विहार' 'झूला दोलन', (झूले पर झूलना), 'फूलों का शृंगार' और 'मदन उत्सव' मनाने की अदभुत परंपरा थी।
'अवदान कल्पलता' नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसंतकालीन - विहार और वन केलि का वर्णन है। कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।
'पिंड नियुक्ति' में चंद्रानना नगरी के राजा चंद्रवतंस के वसंत विहार के संबंध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चंद्रोदय नाम के दो बगीचे थे। राजा ने वसंत काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चंद्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया।
चंद्रोदय उद्यान में अंत:पुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अंत में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दंडित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।
जातक ग्रंथों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुंबिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा सुंदर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के बीच सघन शालवन में वसंत के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृष्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसंत विहार को निकलीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।
'शिशुपाल वध' महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। 'नाया धम्म कहाओ' नामक प्राकृत भाषा के ग्रंथ में चंपा नगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यंत सुंदर और संपन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत और शृंगारिक वर्णन है।
'पद्मचूड़ामणि' में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में- मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।
'जैन हरिवंश' का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय:वसंत काल में ही होते थे, जबकि स्त्री पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसंतकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं।
कलिदास के 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।
बाणभट्ट की 'कादंबरी' में कादंबरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।
'पद्मपुराण के उत्तरखंड में 'कुंकुम क्रीडा' का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चंद्र मंडल भी लाल हो जाते हैं।
जैनों के 'उत्तर पुराण' में वसंतकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है। 'जैनहरिवंश' में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे।
'कुमार पाल चरित' में 'दोला उत्सव' का सजीव और शृंगारिक वर्णन है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।
संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पंचमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुंदर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगंधित केसर और कुंकुम बिखराया कि संपूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से ही उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।
भास के 'चास्र्दत्त' नाटक में 'कामदेवानुयान' नामक एक जलूस का वर्णन है, जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं।
राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' और भोजराज के 'सरस्वती कंठाभरण' में माघ शुक्ला पंचमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक चलता रहता था।
मादक छंद वसंत के - श्याम नारायण वर्मा
- श्याम नारायण वर्मा आज वातावरण में चतुर्दिक मादकता बिखर रही है। पृथ्वी के कण-कण से हास और उल्लास फूट पड़ रहा है। मंद-मंद पवन में सुगंध की सुखद हिलोरे उठ रही हैं। मंजरियों का मुकुट पहने अमराइयों में मधुरिमा अंगड़ाइयाँ ले रही है। मदिर गंध से गमकते फूलों के कहकहों और कलियों की सलज्ज मुस्कानसे वन-उपवन रंगीन हो रहे हैं। प्रकृति की रंगशाला आज दुल्हन की तरह सजी हुई है। सजना भी चाहिए उसे। आखिर आज मदनोतत्सव का रस वर्षी पर्व जो ठहरा। वसुधा वधू से मदन महीप का मिलन पर्व।
लो! भवरों की शहनाई भी बज उठी और कोयल ने पंचम स्वर में अपना मधुर राग छेड़ दिया है। समस्त चराचर अनंग के रंग में डूब गए हैं। ऋतुराज की पालकी आ रही है। आज अपने समस्त वैभव और अपूर्व साज-शृंगार के साथ प्रकृति रानी उसके स्वागत अभिनंदन के लिए संनद्ध हैं। फिर ऐसे रस-रंग के क्षणों में रसिक शिरोमणि कवि ही क्यों पीछे रहे। कवि श्री अभिराम शर्मा ने ऋतुराज की दिव्य शोभा यात्रा का सुंदर काव्य चित्र प्रस्तुत किया है-
अमल कटोरन में कमल पिलावै मधु
चंवर डुलावै चारू अवली मरालकी।
रैन सुख दैन सैन संग चतुरंग लै कै
दैखी ऋतुराज चढ़ि आई आजु पालकी
हृदय आनंद प्रेम और माधुर्य से ओत प्रोत हो रहा है। कवि श्री प्रणयेश के शब्दों में-
मिलनि मिलन्दनि की खिलनिकलीन कुंज
हिलनि सुपात झिलमिलनि दिगंत की।
बोलनि पिकी की उरघोलनि पियूष ऐसी
काम की किलोलनि में डोलनि बसंत की।।
बसंतागमन पर रातें रमणीय और दिवस सुखद हो जाते हैं। वसुंधरा रस विभोर हो उठती है। वातावरण में पराग महकने लगता है, अधरों पर राग थिरकने लगता है और हृदय में अनुराग भी मीठा-मीठा दहकने लगता है। कामनियों का तो अंग-अंग कामसे पीड़ित होने लगता है। कवि श्री हरिजूने भी कहा है-
पीरे परिधान पैन्हि पुहुमी परी कौ पैखि
फूलै द्रुम लतिका ललामा भई जाती है।
रंग-संग डोलत सुगंधित लीन्हें गंध वाह।
अंग-अंग कामिनी सकामा भई जाती हैं
और कवि तरलके शब्दों में-
लोचनों की अरुणिमा कपोल की लालिमा रूपवती हुई जाती।
आज वसंत यौवन में पा अभिलाषा नई युवती हुई जाती।
कवि श्री देवने तो बसंत को मदन महीपका बालक माना है-
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि प्रातहि जगावे गुलाब चटकारी दै।
किंतु कवि श्री करुणेश इसे वसुंधरा और ऋतुराज का मिलन पर्व मानते हैं।
नहीं फूली समा रही है सरसों
सुषमा है बसंत की छाया हुई।
सुनते हैं वसुंधरा रानी बनी
ऋतुराज के साथ सगाई हुई।
कवि श्री ललाम मिश्र की कल्पना है कि ऋतुराज अपने पितृ-धर्मका निबहि करते हुए इस शुभ मुहूर्त में पुत्री मेदिनी के हाथों को पीला करता है।
अनुराग की मादक छाई छटा, अलि के मन को नशीला किया।
तितली बन नाच परीसी चली, अनुशासन धर्मका ढीला किया।
रंग देख पिकी हो विभोर उठी, विधि ने शिखी आँचल गीला किया
ऋतुराज पिता ने बड़े सुखसे, जब मेदिनी का कर पीला किया।
कोयल भी तो अपनी कुहूँ-कुहूँ के द्वारा काम-मंत्र का जाप कर रही है। ऋतुराज के राज्य में योगियों और तपस्वियों तक की समाधियाँ टूट रही हैं तब रसिकों की दशा का कौन वर्णन करे। कविश्याम द्विवेदी के छंद का एक अंश है।
जोगिन आजु समाधि तजी मन
चंचल श्याम भो संत-महंत को
ऐरी बधूकुल कानि सँवारि लै
शासन है ऋतु राज बसंत को।
सारी प्रकृति में सजने-सँवरने की होड़-सी लगी हुई है कवि श्री कुमुदेश बाजपेयी का एक निरीक्षण हैं-
बेसुध बावली देखो धरा वधू
रूप सँवार रही है दिगंत का।
बल्लरियाँ द्रुमों पै चढ़ के नया
रूप निहार रही है बसंत का।
बसंत के मनोहरी और मादक पर्व पर जिन कामिनियों के कन्त घर पर हैं, उनके हास-विलास का क्या कहना। उनके परिधान और समस्त साज-शृंगार बसंती बने है और वे प्रियतम के साथ बसंत का आनंद लूट रही हैं। कवि श्री ग्वालके छंद की यह बसंती छटा देखें-
सरसों के खेत की बिछावन बसंती बनी
तामें खड़ी चाँदनी बसंती रति कन्त की
सोने के पलंग पर वसन बसंती सजि
सोन जुही मालै हालै हिय हुरूसंत की।
ग्वाल कवि प्यारो पुखराजन को प्याला पूरि,
प्यावन पियाको करै बाते विलसंत की
राग में वसंत, बाग-बाग में बसंत, फूल्यो
लाग मैं बसंत क्या बहार है बसंत की।
किंतु ऐसे मधुमय समय में जिनके प्रियतम पास नहीं है उनकी पीड़ा तो पहाड़ बन जाती है। जीवन का समस्त उल्लस मरुस्थल की असीमित प्यास में परिवर्तित हो जाता है मिलनके समय सुख और उद्दीपन प्रदान करने वाले प्रकृति के सारे उपादान वियोग में पीड़ादायक बन जाते हैं। विरह में स्वयं काली हुई कोयल वियोगियों को मर्मांतक कष्ट देती है। कवि श्री सनेही की विरहिनी नायिका उसे भी खरी-खोटी सुनाने में नहीं चूकती-
देखि परै हैं अंगारै अंगार न जानिये कौन वनस्थली फूंकी।
दागि भभूका अनार भये कचनार अनार में धार लहू की।
हुंकन सो हैं वियोगी दुखी बजमारी लहूँ नहीं ओसर चूकी।
भाँप हूँ है जरि कारी भई पर कू-कू कसाइन क्वैलिया कूकी।
ये कोयलें भी तो इन्हीं वियोगियों और विरहिणीयों के शापों तापों से जलकर काली हुई हैं। कवि श्री श्याम बिहारी (बिहारी) के अनुसार अभिशाप से मानों वियोगियों के जल के सभी कोयलें काली हुई।
वियोगावस्था में त्रिविधि समीर त्रिशूल की तरह चुभता है। पक्षियों के स्वर हृदय को घायल करते हैं। कवि श्री नूतन ने पलाश के लाल-लाल फलों को देखकर कैसी मार्मिक उक्ति कही है-
फूले न पलास मेरे जान कवि नूतन जी
विरहिन बिचारिन के जलते कलेजे हैं
पलाश गुलाब, अनार और कचनार फूल रहे हैं। खेतों में पीली सरसों भी नहीं फूली समा रही है। बन उपवन में कोयलें कूक रही हैं। चारों ओर काम के नगाड़े बज रहे हैं। किंतु प्रियतम परदेश में बसे हैं। दुष्ट बसंत सिर पर आ पहुँचा है अब बेचारी विरहिणी किसका सहारा ले। कवि श्री हरिश्चंद्र के शब्दों में-
हरिश्चंद्र कोयलें कुहुकी फिरै बन बन बाजै लाग्यों फेरिगन काम को नगारो हाये
क्रूर प्रान प्यारो काको लीजै सहारो अब आयो फेरि सिर पै बसंत बज्र मारो हाय।
तभी तो कवि श्री पद्माकर की विरह विदग्धा विरहिणी गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं-
ऊधौ यह सूधौ सो संदेसो कहिदो जो भलो,
हरि सो हमारे हयाँ न फूले बन कुंज हैं।
किंशुक, गुलाब कचनार और अनानर की,
डालन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।
लाल फूल जो दूर दिगंत तक फैले हुए हैं, आप उन्हें पलाश के फूल कहते हैं। जरा किसी विरही से तो पूछ देखिये वह कवि श्री सेनापतिके शब्दों में कहेगा-
आधे अन सुलगि, सुलगि रह आधे मानों विरही दहन काम क्वैला परचाये हैं।
उधर प्रियतम परदेश जाने के लिए तत्पर हैं और इधर बसंत भी आ रहा है, नायिका इस स्थिति में अपने को कैसे सम्हाल सकेगी। किंतु जाना भी तो टाला नहीं जा सकता। इस पर नायिका कवि श्री वचनेश के शब्दों में प्रियतम से निवेदन करती हैं-
कूकि-कूकि किरचै करेजे में करेगी ताते,
कोयल कसाइन की जीभ निकाराये जाव।
सौरभ समीर के दुरागम अवरोध हेतु
आँगन पटाये और दरीचिनि मुंदाये जाव।
आगम बसंत कंत जात हैं दुरंत देश,
मोपै 'बचनैश' एती दया दरसाये जाव।
लावै न बसंत, औ मनावै न बसंत कोऊ।
गावै न बसंत कोऊ, सबन सिखाये जाव।
जिसकी आशंका थी वह वैरी बसंत आ ही पहुँचा। सारी प्रकृति उन्मत्त हो रही है। लगता है मालिन भी बावरी हो गई है, जो विरहिणी के पास आम्र मंजरियाँ ले आई है। कवि श्री सनेही की सारी सहानुभूति नायिका के साथ है-
बौरे बन बागन बिहंग विचरत दौरे,
बौरोसे भ्रमर भीर भ्रमत लखाई है।
बौरो बन मेरो घर आयो न बसंत हूँ मैं।
बौरी कर दीन्हीं मोंहि बिरह कसाई है।
सीख सिखवत बौरी साखियाँ सयानी हुई,
बौरे भये वैद कछु दीन्हीं न दवाई है।
बौरी भई मालिनी चली है भरि झोरी कहाँ,
बौरो करिवे को औरों बौर यहाँ लाई है।
बसंत जहाँ आनंद प्रेम और मधुरिमा का पर्व हैं वहीं इस समय ज्ञान, कला और विद्या की देवी सरस्वती पृथ्वी पर अवतरित होती हैं। अनेक अंचलों में आज भी सरस्वती पूजा की परंपरा पूरी की जाती है। कवि श्री कमलेश ने अपने छंद में इसका संकेत किया है-
पिकी पंचम तानमें बोल उठी उठो कष्ठ में रागेश्वरी उतरी।
कवियों ने, चितेरों ने, गायकों ने समझा महा भागेश्वरी उतरी
मधुमाते बसन्त के आँगन में हँसती अनुरागेश्वरी उतरी।
अविकंठ से वीना बजाती हुई वनों-बागों में बागेश्वरी उतरी।